मिर्ज़ा ग़ालिब के मशहूर शेर

मिर्ज़ा ग़ालिब के मशहूर शेर पढ़ने के लिए आप एक सही वेबसाइट पर आये हैं।  सहरसा शायरी लाया है आपके लिए मिर्ज़ा ग़ालिब के बेस्ट पोएट्री का संग्रह।                                                      



                                                            हुई मुद्दत कि ग़ालिब मर गया

पर याद आता है

वो हर इक बात पर कहना

कि यूँ होता तो क्या होता



था ज़िन्दगी में मर्ग का खटका लगा हुआ

उड़ने से पेश्तर भी मेरा रंग ज़र्द था

 


ज़िन्दगी अपनी जब शक़ल से गुज़री ग़ालिब

हम भी क्या याद करेंगे के खुदा रखते थे


पियूँ शराब अगर ख़ुम भी देख लूँ दो चार

ये शीशा-ओ-क़दह-ओ-कूज़ा-ओ-सुबू क्या है


चिपक रहा है बदन पर लहू से पैराहन

हमारी ज़ेब को अब हाजत-ए-रफ़ू क्या है


क़र्ज़ की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि हां

रंग लावेगी हमारी फ़ाक़ा-मस्ती एक दिन

 

मै से ग़रज़ नशात है किस रूसियाह को

इक गुनाह बेखुदी मुझे दिन रात चाहिए

 

ये मसैल-ए-तसव्वुफ़ ये तेरा बयान ग़ालिब

तुझे हम वली समझते जो ना बड़ा खवर होता

 

होगा कोई ऐसा भी के ग़ालिब को ना जाने

शायर तो वो अच्छा है पर बदनाम बहुत है

 

चंद तस्वीर-ए-बूतान चंद हसीनो के ख़ुतूत

बाद मरने के मेरे घर से ये सामान निकला

 

बाज़ीचा-ए-अतफल है दुनियां मेरे आगे

होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मेरे आगे

 

मेहरबान हो के बुला लो मुझे चाहे जिस वक़्त

मैं गया वक़्त नहीं हूँ के फिर आ भी ना सकूँ

 

दिल-ए-नादान तुझे हुआ क्या है

आखिर इस दर्द की दवा क्या है

 

कोई उम्मीद बर नहीं आती

कोई सूरत नज़र नहीं आती

 

आशिक़ हूँ पर माशूक़ फरेबी है मेरा काम

मजनू को बुरा कहती है लैला मेरे आगे

 

जाते हुए कहते हो क़यामत को मिलेंगे

क्या खूब क़यामत का है गोया कोई दिन और

 

काबा किस मुँह से जाओगे ग़ालिब

शरम तुमको मगर नहीं आती

 

तुम सलामत रहो हज़ार बरस

हर बरस के दिन हो पचास हज़ार

 

रोने से और इश्क़ में बेबाक हो गए

धोए गए हम इतने के बस पास हो

 

दर्द जब दिल में हो तो दवा कीजिए

दिल ही जब दर्द हो तो क्या कीजिए

 

मैं भी मुँह में जुबां रखता हूँ

काश पूछो की मुद्दा क्या है

 

इश्क़ मुझको नहीं वेह्शत ही सही

मेरी वेह्शत तेरी शोहरत ही सही

 

बक रहा हूँ जूनून में क्या क्या कुछ

कुछ ना समझे खुदा करे कोई

 

आ ही जाता वो राह पर ग़ालिब

कई दिन और भी जिए होते

 

जान तुम पर निसार करता हूँ

मैं नहीं जानता दुआ क्या है

 

कोई वीरानी सी वीरानी है

दश्त को देख के घर याद आया

 

ग़ालिब छूटी शराब पर अब भी कभी कभी

पीता हूँ रोज़-ए-अब्र और शब्-ए-मेहताब में

 

क़सीद के आते आते खत इक और लिख रखूं

मैं जानता हूँ जो वो लिखेंगे जवाब में

 

हाथों की लकीरों पे मत जा ऐ गालिब

नसीब उनके भी होते हैं जिनके हाथ नहीं होते

 

वाइज़ तेरी दुआओं में असर हो तो मस्जिद को हिलाके देख

नहीं तो दो घूंट पी और मस्जिद को हिलता देख

 

नज़र लगे ना कहीं उसके दस्त-ओ-बाज़ू को

ये लोग क्यूँ मेरे ज़ख़्म-इ-जिगर को देखते हैं

 

रही ना ताक़त-ए-गुफ़्तार और अगर हो भी

तो किस उम्मीद पे कहिये के आरज़ू क्या है

 

रेख़्ते के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो ग़ालिब

कहते हैं अगले ज़माने में कोई मीर भी था

 

कोई मेरे दिल से पूछे तिरे तीर-ए-नीम-कश को

ये ख़लिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता

 

तुम ना आए तो क्या सहर ना हुई

हाँ मगर चैन से बसर ना हुई,

मेरा नाला सुना ज़माने ने

एक तुम हो जिसे ख़बर ना हुई

 

हुआ जब गम से यूँ बेहिश

तो गम क्या सर के कटने का,

ना होता गर जुदा तन से

तो जहानु पर धरा होता

 

वो चीज़ जिसके लिये हमको हो बहिश्त अज़ीज़

सिवाए बादा-ए-गुल्फ़ाम-ए-मुश्कबू क्या है

 

ये हम जो हिज्र में दीवार-ओ-दर को देखते हैं

कभी सबा को कभी नामाबर को देखते हैं

 

तेरे ज़वाहिरे तर्फ़े कुल को क्या देखें

हम औजे तले लाल-ओ-गुहर को देखते हैं

 

हैं और भी दुनिया में

सुख़नवर बहुत अच्छे,

कहते हैं कि ग़ालिब का है

अंदाज़-ए-बयाँ और

 

ये न थी हमारी क़िस्मत

कि विसाल-ए-यार होता,

अगर और जीते रहते

यही इंतेज़ार होता

 

तेरे वादे पर जिये हम

तो यह जान झूठ जाना,

कि ख़ुशी से मर ना जाते

अगर एतबार होता

 

हमको मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन

दिल के खुश रखने को ‘ग़ालिब’ ये ख़्याल अच्छा है

 

हर एक बात पे कहते हो तुम

के तू क्या है,

तुम ही कहो के ये

अंदाज़-ए-गुफ्तगू क्या है,

रगों में दौड़ते फिरने के

हम नहीं कायल,

जब आँख ही से ना टपका

तो फिर लहू क्या है

 

जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगा

कुरेदते हो जो अब राख जुस्तजू क्या है

बना है शह का मुसाहिब फिरे है इतराता

वगर्ना शहर में ग़ालिब की आबरू क्या है

 

ये रश्क है कि वो होता है हमसुख़न हमसे

वरना ख़ौफ़-ए-बदामोज़ी-ए-अदू क्या है

 

इश्क़ ने ग़ालिब निकम्मा कर दिया

वरना हम भी आदमी थे काम के

 

मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़

जीने और मरने का,

उसी को देख कर जीते हैं

जिस काफ़िर पे दम निकले

 

हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी

कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले,

बहुत निकले मिरे अरमान

लेकिन फिर भी कम निकले

 

उनके देखे से जो आ जाती है

मुँह पर रौनक,

वो समझते हैं की बीमार का

हाल अच्छा है

 

 

कितना ख़ौफ होता है शाम के अंधेरों में

पूछ उन परिंदों से जिनके घर नहीं होते

 

इश्क़ पर ज़ोर नहीं है ये वो आतिश ग़ालिब

की लगाए ना लगे और बुझाए ना बुझे

 

इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना

दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना

 

दिल से तेरी निगाह जिगर तक उतर गई

दोनों को इक अदा में रज़ामंद कर गई

 

आह को चाहिए इक उम्र असर होते तक

कौन जीता है तिरी ज़ुल्फ़ के सर होते तक

 

दर्द मिन्नत काश-ए-दवा ना हुआ

मैं ना अच्छा हुआ ना बुरा हुआ

 

वो आए घर में हमारे

खुदा की क़ुदरत हैं,

कभी हम उनको कभी

अपने घर को देखते हैं

 

निकलना ख़ुल्द से आदम का सुनते आए हैं लेकिन

बहुत बे-आबरू हो कर तिरे कूचे से हम निकले

 

ना था कुछ तो ख़ुदा था

कुछ ना होता तो ख़ुदा होता,

डुबोया मुझको होने ने

ना होता मैं तो क्या होता


कहाँ मय-ख़ाने का दरवाज़ा ग़ालिब और कहाँ वाइज़

पर इतना जानते हैं कल वो जाता था कि हम निकले

 

बना कर फ़क़ीरों का हम भेस ग़ालिब

तमाशा-ए-अहल-ए-करम देखते हैं

 

ग़ालिब बुरा ना मान जो वाइज़ बुरा कहे

ऐसा भी कोई है की सब अच्छा कहे जिसे

 

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